entertainment
‘मां’: शक्ति, बलिदान और थ्रिलर की गाथा

Movie Review: नवरात्रि में मां दुर्गा सप्तशती का पाठ करने वाले लोग शक्ति के विभिन्न स्वरूपों से परिचित होते हैं, जिसमें काली का विकराल रूप विशेष महत्व रखता है। वे जानते हैं कि काली का यह स्वरूप क्यों है, इसका क्या महत्व है, और कैसे यह प्रकृति में सज्जन और दुर्जन के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। इसी संदर्भ में रक्तबीज की कहानी भी खूब सुनी और सुनाई जाती है, जो दुष्टों के संहार और शक्ति के पराक्रम को दर्शाती है।
विशाल फूरिया ने अपने सह-लेखक साइवन क्वॉद्रस, आमिल खान और अजित जगताप के साथ मिलकर इसी कहानी के इर्द-गिर्द एक काल्पनिक संसार रचा है, जिसे ‘मां’ नामक फिल्म में बंगाल के चंद्रपुर नामक एक गांव की पृष्ठभूमि में दर्शाया गया है।
click here:- Son of Sardar 2: अजय देवगन ने जारी किया फिल्म का पहला वीडियो
फिल्म की कहानी
फिल्म की कहानी चार दशक पहले शुरू होती है, जब कन्याओं की बलि देने की अमानवीय प्रथा प्रचलित थी। यह बलि भले ही यहां शाब्दिक रूप से दर्शाई गई हो, लेकिन भारत के गांवों और देहातों में सदियों से बेटियों को जन्म लेते ही मार देने के तमाम क्रूर तरीके अपनाए जाते रहे हैं, जो एक भयावह सामाजिक यथार्थ है। इस फिल्म में काजोल उस बिटिया की मां बनी हैं, जिसकी बुआ की बलि के तार अतीत से जुड़ते हैं।
दर्शकों के मन में यह सवाल उठता है कि उसके पिता और उनकी बहन की क्या कहानी है? क्यों जन्मते ही उस बच्ची की बलि दे दी गई? और अब यह मां-बेटी चंद्रपुर वापस क्यों लौटी हैं? घर के मुखिया का क्या होता है? ये सभी प्रश्न एक थ्रिलर कहानी के अलग-अलग अवयव हैं, जो दर्शकों को बांधे रखने का प्रयास करते हैं।
फिल्म का प्रचार मुख्य रूप से एक हॉरर फिल्म के रूप में किया गया है, जिसके चलते दर्शक पूरे समय, सीन दर सीन, किसी न किसी तरह के ‘जंप स्केयर’ की उम्मीद लगाए रहते हैं। हालांकि, फिल्म में ऐसा कुछ खास देखने को नहीं मिलता, सिवाय क्लाइमेक्स के ठीक पहले के कुछ दृश्यों को छोड़कर, जहां हॉरर का पुट महसूस होता है। यह एक मार्केटिंग की गलती प्रतीत होती है, क्योंकि फिल्म का मूल स्वभाव हॉरर से कहीं अधिक एक पारिवारिक रहस्य और बदला लेने की कहानी है।
click here:- OnePlus Nord 2T Pro: प्रीमियम डिज़ाइन और शानदार डिस्प्ले
अभिनय और कलाकारों का योगदान
अभिनय के लिहाज से यह फिल्म काजोल के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा सकती है, और यह उन्हें पुरस्कार दिलाने वाली फिल्म साबित हो सकती है। उन्होंने एक मां के दर्द, उसकी संघर्ष और प्रतिशोध की भावना को पर्दे पर बखूबी उतारा है। इंद्रनील सेनगुप्ता ने भी अपने हिस्से का काम कुशलता से निभाया है।
हालांकि, फिल्म में सबसे अधिक चौंकाने वाली अदाकारी रोनित रॉय की है। उनका सरपंची स्वरूप देखने लायक है। उन्होंने एक ग्रामीण मुखिया के दबंग और रहस्यमयी व्यक्तित्व को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। गोपाल सिंह भी लंबे अरसे बाद किसी हिंदी फिल्म में नोटिस किए गए हैं, और उनका अभिनय भी सराहनीय है। विभा रानी का किरदार भी जोरदार है, जो कहानी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जितिन गुलाटी के किरदार पर हालांकि और अधिक मेहनत की जा सकती थी, ताकि वह कहानी में अपनी छाप छोड़ पाता।
‘मां’ एक महत्वपूर्ण सबक
फिल्म ‘मां’ एक महत्वपूर्ण सबक भी देती है कि इस तरह की कहानियों में कलाकारों के चेहरे-मोहरे को ध्यान में रखते हुए अगर कास्टिंग न की जाए तो कलाकारी का असर बेहतर हो सकता है। जिन चेहरों को दर्शक सोशल मीडिया पर अक्सर रोज रंग बदलते देखते हैं, उन चेहरों को उनके इस ‘सेट आडंबर’ से अलग रंग देना बहुत जरूरी है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब कलाकार अपनी सोशल मीडिया छवि से बाहर निकलकर कुछ नया करते हैं, तो उनकी कलाकारी का प्रभाव दर्शकों पर गहरा पड़ता है।
लेखन, निर्देशन और तकनीकी
फिल्म ‘मां’ को बनाने में जितनी मेहनत काजोल और विशाल फूरिया ने की है, उतनी मेहनत इसकी राइटिंग टीम की यहां नहीं दिखती। काली और रक्तबीज के संदर्भ को फिल्म में और अधिक मजबूती से स्थापित किया जा सकता था। यह एक महत्वपूर्ण मौका था कि भारतीय पौराणिक कथाओं के गहरे प्रतीकों को समकालीन कहानी के साथ जोड़ा जाए, लेकिन यह अवसर चूक गया। इसके लिए फिल्म को जबरदस्ती बंगाल की पृष्ठभूमि में ले जाने की भी कोई खास जरूरत नहीं थी, क्योंकि कहानी का मूल विषय सार्वभौमिक है। अनावश्यक रूप से कलाकार जबरदस्ती की बंगाली बोलते पकड़े जाते हैं, जो कई बार अस्वाभाविक लगता है और कहानी के प्रवाह को बाधित करता है।
इस बड़ी कमी को फिल्म के डीओपी पुष्कर सिंह और एडीटर संदीप फ्रांसिस अपनी कुशलता से आखिर तक ढकने की कोशिश करते नजर आते हैं। पुष्कर सिंह की सिनेमैटोग्राफी और संदीप फ्रांसिस का संपादन फिल्म को एक निश्चित गति और दृश्य सौंदर्य प्रदान करता है, लेकिन कमजोर लेखन के प्रभाव को पूरी तरह से मिटा नहीं पाता।
वीएफएक्स की कमी
फिल्म का सबसे बड़ा सबक इसके निर्माता अजय देवगन के लिए है। उन्हें अपनी ग्राफिक्स कंपनी एनवाई वीएफएक्सवाला के लिए कुछ ऐसे युवा ग्राफिक्स आर्टिस्ट रखने चाहिए जो विश्वस्तरीय विजुअल इफेक्ट्स बना सकें। फिल्म में कुछ दृश्यों में वीएफएक्स की कमी साफ झलकती है, जो फिल्म के समग्र प्रभाव को कम करती है। इसके लिए, दक्षिण भारतीय फिल्म ‘हनुमान’ में काम करने वाले युवा कलाकारों को भी तलाशने का सुझाव दिया गया है, क्योंकि उस फिल्म ने सीमित बजट में भी बेहतरीन विजुअल इफेक्ट्स का प्रदर्शन किया था।
आर पी यादव ने फिल्म में कुछ अनोखे एक्शन सीन गढ़े हैं, और उन पर उन्हें तालियां भी मिलती हैं। यह एक्शन कोरियोग्राफी फिल्म में कुछ रोमांचक क्षण जोड़ती है। फिल्म में सुहागा का काम प्रणव वत्स के लिखे गाने ने किया है, जिस पर हर्ष उपाध्याय ने आज के जमाने के हिसाब से संगीत सजाकर फिल्म की बड़ी मदद की है। गाने फिल्म के भावनात्मक क्षणों को उभारने में सफल रहते हैं।
सामाजिक संदेश देने की कोशिश
‘मां’ एक ऐसी फिल्म है जिसमें पोटेंशियल तो बहुत था, लेकिन कमजोर लेखन और कुछ तकनीकी खामियों के कारण वह पूरी तरह से खरी नहीं उतर पाती। काजोल और रोनित रॉय जैसे अभिनेताओं के सशक्त प्रदर्शन के बावजूद, फिल्म अपनी कहानी को उस गहराई और प्रभाव के साथ प्रस्तुत करने में विफल रहती है जिसकी अपेक्षा की जा सकती थी, खासकर जब यह काली और रक्तबीज जैसे शक्तिशाली पौराणिक संदर्भों से प्रेरणा ले रही हो।
यह एक थ्रिलर के रूप में दर्शकों को बांधे रखने का प्रयास करती है, लेकिन हॉरर के वादे को पूरा नहीं कर पाती। फिल्म एक सामाजिक संदेश देने की कोशिश भी करती है, विशेषकर कन्या भ्रूण हत्या जैसी गंभीर समस्या पर, लेकिन उसे भी और अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत किया जा सकता था।
फिल्म निश्चित रूप से एक बार देखी जा सकती है, खासकर उन दर्शकों के लिए जो काजोल और रोनित रॉय के अभिनय को पसंद करते हैं। यह भारतीय सिनेमा के लिए एक महत्वपूर्ण सबक भी है कि अच्छी कहानी, सशक्त लेखन और विश्वस्तरीय तकनीकी गुणवत्ता का संगम ही एक अविस्मरणीय सिनेमाई अनुभव प्रदान कर सकता है।
-
Latest News1 month ago
आपको मिलेगा बजट में ईयरफोन, क़्वालिटी भी है शानदार
-
Latest News4 weeks ago
वृंदावन: बांके बिहारी मंदिर के अलावा भी ये हैं दर्शनीय स्थान
-
Latest News4 weeks ago
स्नातक पास के लिए सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में 4500 पदों पर भर्ती
-
Sarkari Yojna1 month ago
रासायनिक उर्वरकों का उपयोग कम करें किसान